यह उदासी
बातें सुनते
अनमने में सर
हिलाते हुए
देखते हुए चेहरा
दरअसल चेहरा नहीं
अपने दिमाग में
तैरती परछाइयों के
ठीक सामने आ खड़े होने पर
गुमसुम अपने में गुम,
कभी गंगा किनारे
तो कभी यमुना के
घाट पर तैरती नावों का
दूर तक पीछा करती नज़रें
वहीं चुपचाप पत्थर पर
बैठी मेरी देह
समा जाने को जल में
सोचने लगती है
हर वक़्त की ये
उदासी, गुमशुदगी जो
भीतर बोलती रहती है
ओट ले विचारों की
मेरे धैर्य को परखती रहती है
हो ना हो
गहरी काली रातों का
सुनसान अंधेरा है
मेरे जन्म के क्षणों में
मेरी आत्मा पर हावी हो
देह से अलग करता रहा है
बहुत मुश्किल होता है
मिलते हुए भी जब
छूटती जाती हूँ सबसे
हर जगह से . .,…
देखना खुद को छटपटाते
झल्लाते, हाथ पांव मारते
गांव में गली के मोड़ पर
कुएँ में डूबने से बचाने की
कवायद करते हुए..,.
बहुत मुश्किल होता है
सांसें चल रही हों
दम मगर घुट रहा हो ……
वहाँ सूरज की रोशनी
ना चाँद की चाँदनी
रह जाता है धुआं धुआं
होता मन……
सीमा गुप्ता
पंचकूला
नज़्म सी वे लड़की
ज़िंदगी एक उदास लड़की है
सुंदर लड़की ने मेरी नज़्म को पढ़ा और कहा
मैंने उसका चेहरा देखा
देखा नहीं पढ़ा
बोलता चेहरा
सवाल करती कजरारी आँखें
नज़र मिली , उदासी ने उदासी से
गुज़री उम्र के दश्त की वीरानियों
डर की कहानियों के दर्द
सर्द सी मुस्कुराहट पहन बिना कुछ कहे
बयान किए
नसीब की बातें
भीड़ के क़िस्से
अफसुर्दगी की गर्द में
आँखों के बुझते चिराग़ के दुख
वालिद के गुज़रने के ग़म में
गुमसुम गुप-चुप रहने वाली
अम्मी की खामोशी
इन सबको सहता समझता मन
ज़िंदगी को इक उदास लड़की कहने
के लिए वाजिब कारण तो दे ही देता है
यही ग़म हैं सदियों के सदियों से
इक उदासी ही तो सच्ची और पक्की
सहेली है ज़िंदगी की ,
अगर ये समझ लें
उदासी को सलीक़े से होंठों पर
सहेज लें फिर कोई
बुरा उदासी को कह नहीं सकता
शिकायत कोई किसी से
कर नहीं सकता ……..
सीमा गुप्ता
शुक्रिया शुक्रिया शुक्रिया
काग़ज़ पर लिखती थी जब
नज़्में, काग़ज़ भीग जाता था
डायरी के पन्ने साँस लेने को छटपटाते थे
आँखों से टपटप गिरी बूँदों को
सोख लेता था पन्ना
सियाही फैल जाती थी
और लिखी बात कोई आकार ले
वही ठहर जाती थी
लम्बे लम्बे क़िस्से
क़िस्से तो गढ़े जाते हैं
तो क़िस्से नहीं
भोगी गईं हकीकतें
जो दूसरों के लिए सुनीए जाने वाले
क़िस्से रहे, दबी ज़ुबान में कसे जाते तंज रहे
पीठ पीछे हंसते चेहरे रहे
दीवारों ने बहुत निभाया साथ
खुली छत ने गिरते पड़ते को
मुझे हर बार बहुत एहतियात से संभाला
मेरे निराश मन को
काग़ज़ ने अपनी स्याही के उजाले देकर
बहुत बार सहमी आँखों हताश देह
के हृदय को शांत किया
ऐ लड़की
कहकर डाँटा भी
छलकी हुई बेबसी को सब्र दिया
उचटे मन की मदद की
मेरा मन अब उनके बेहिसाब प्यार को
याद करता है
मुझे ख़ुद को जानने में
ख़ुद को ज़िंदा बचाए रख पाने में
मेरे संघर्ष के साथी और साक्षी रहे तुम सब
मैं अब जब लिखती हूँ नज़्में
तुम सबका प्यार मेरी चेतना को
जगाए रखता है
इधर से उधर उड़ता घूमता मन
मुझे तुम्हारे बीच ले जाता
बीती हुईं उदास रंगीनियों के रंग
मेरे आमपास छितरा कर
मेरी नज़्मों को अपनी बरकत से भर देता
शुक्रिया शुक्रिया बीते हुए वक़्त
तेरा बहुत बहुत शुक्रिया….,,,,,
लीची का पेड़
इंतज़ार करता है पूरे बरस
आंगन में लगा पेड़ लीची
के आने और पकने का
पतझड़ की वीरानी से आहत
बसंत के आगमन पर हो जाता
नवयुवक सा मस्त, अल्हड़ता
में झूमता, हिलाता डालियाँ
देता निमंत्रण पक्षियों को
आहह देखते ही बनता
इसका सौंदर्य .,.. धूप में चमकते
कोमल नए पत्ते, अक्सर
झांक लेती दरवाजे के भीतर से ही
फुदकता इठलाता जामुनी
इक चंचल जोड़ा
प्रेम मिलन को करता अठखेलियाँ
बाहर आ मैं देखती , भर
लेती आँखों में वो सुंदर दृश्य
थकावट बीस बरस की
उकताहट, इंतज़ार पूरे बरस का
ढह जाता सब, बिखर कर
हो जाता हवा, महकती लीची के
लगते ही, भर जाती मिठास
तृप्त कर देती कंठ
पी कर अमृत की ये बूंदे
मिट्टी हो जाती थोड़ी और नम
कस लेती और अपनी पकड़
प्रगाढ़ आलिंगन . … बुदबुदाता
है वृक्ष, सकुचा जाती है मिट्टी
मिट्टी, पेड़ और फल बाहरी हैं सब दृश्य
भीतर जो पनपता है, सहेजता है
वो प्रेम का आखिरी पड़ाव
है समर्पण…..
क्या कहोगे इसे
डर रहा और
नहीं भी
टूटने का डर
कभी तोड़ दिये
जाने का डर
संदेह रहा खुद पर
कभी विश्वास भी
भूलने की कोशिश में
सहेजती भी रही स्मृतियाँ
अजीब रहा सब कुछ
जीवन
आधे भरे गिलास सा
आशा और निराशा के
पैमाने पर तौलती रही
भरी आँखों में छिपाती
रही मन का खालीपन
सुख, दुख, मिलना, बिछड़ना
देखते,सुनते, समझते शरीर
छूट जाते हैं पीछे एक दिन
जीवन समझौतों
क्या कहोगे इसे तुम
जीवनबोध या मृत्युबोध
….
खोखला हो चुका
मर रहा है रिश्ता
आख़िरी साँस पर है
कभी भी दम तोड़ सकता है
आवाज़ें चुभने लगी है
बातें
सपनों में
आम के पेड़ की सबसे
ऊंची डाल पर
तोते के कुतरे आम
ढूंढती हूँ…
सपना के भीतर एक
और सपना लेती हूँ
आकाश छू लेने का
फिर धरती पर यहाँ वहाँ
उगी हरियाली को
छू लेने का
याद आया बचपन
का पहला इमली का पेड़
विशालता, सघनता जिसमें
गुम होकर भूल जाना चाहती थी
घर, अपने और सपने
स्वाद प्रेम का चखा था वहीं
खटास उसकी जीवन भर
बचाकर रखती आई हूँ
इसकी अपनी एक खास जगह है
मेरे होने की मिठास है
संभव है सपने में ही
मिलना मिलाना
अब जहाँ जाना संभव नहीं
छूट चुके लोगों को
मिलना संभव नहीं…..
आंखों में जब बचते नहीं आँसू
सूखी, खुश्क आँखों में
तब भी बचे रह जाते हैं सपने
सपनों में दिख जाते हैं
खेत, घर और अपने……
वक़्त बीतता है
लोग नहीं
ज़िंदा रह जाते हैं सब
कभी किसी सपने में
तो कभी अपने में…..
सीमा गुप्ता
कविता लिखना
बेवजह मुस्कुराती हूँ जब
गुनगुनाती हूँ गीत कोई
अत्यंत मुश्किल समय में
खुलकर हंसी भी हूँ कभी
बैठे बैठे समंदर उतर जाता है मुझमें
बेचैन भटकती हिरणी सी
व्याकुल कभी जंगल तो कभी
ढूंढने लगती हूँ नदी
सोई रहती हूँ रात भर एक ही करवट
कभी उठ उठ कर देखती हूँ
कितनी रात बाकी है
देह की भटकन है या मन
की बेचैनियाँ
सोचती जाती हूँ
अपने एकांत में करती हूँ
बातें खुद से ही
कभी खुलती हूँ थोड़ा
कभी ताले कसकर बांधती हूँ
कुछ और, कुछ और
कुछ और फंसती ही
चली जाती हूँ उलझनों में
बैठती हूँ, उठती हूँ
थोड़ा टहलती हूँ
खिड़की से झांक लेती हूँ यूँ ही
खुला आकाश, जागते
चांद सितारे , चलती हवा
सब चुप लगाए किसी समाधि
में लीन लगते हैं, ऐसे में
जरा सी आहट पर चौंक
जाएं न सब ,आ बैठती हूँ अपनी मेज पर
इस तरह मैं
कविता लिखने लगती हूँ…..
प्रसूता
एक स्त्री जिसने अभी
लिया है नया जन्म
दिया है जीवन
ईश्वर के प्रति कृतज्ञ
सुख की अनुभूति में
दुख को दूर छिटकाती हुई
आत्मकथा में एक और
अध्याय लिखती, धीरे धीरे
उठकर चलने को तैयार होते
हुए नापती है दूरी
जीवन की मृत्यु से
अब तक जो हुआ
घटा बीता सबको व्यर्थ कर
एक किनारे लगा
अन्न जल, फल हंसते
हुए लेती है कि
नए दृष्टिकोण से देखना है जीवन
बहुत गहरे प्रेम में , लेकिन
कल्पनाओं से परे
खुली आँखों से
स्थिरमना हो
शिशु के स्पर्श सुख को
ही भीतर उतारना चाहती है
उस क्षण जीवन में
नहीं तलाशती कोई दोष
ना ही समझती बंधन
ओढ़ कर आंचल , शिराओं से
शिशु कंठ में उतारते हुए
दूध, करवाती हुई स्तनपान
विराट की अनुपम कृति
केवल और केवल
एक माँ लगती है
अतीत की थकान को भूली
भविष्य के डर से परे
जन्म प्रमाण पत्र पर
करती हुई हस्ताक्षर
पूर्णता में अपनी, धरती
आकाश लगती है
ममतामयी, ज्योतिर्मयी
वो स्त्री बहुत सुन्दर लगती है……
@ सीमा गुप्ता
मैं और मेरी कलम….
मैं